EN اردو
मुन्तज़िम | शाही शायरी
muntazim

नज़्म

मुन्तज़िम

शहनाज़ नबी

;

हमारे जैसे अजीब लोगों की रंजिशों का
मलाल किस को

ज़मीन करती है बैन
आँसू फ़लक बहाता है चुपके चुपके

फ़ज़ा में सिसकी सी तैरती है
हैं सर-ब-ज़ानूँ तमाम मंज़र

कहीं छिनी है किसी की गुड़िया
कहीं फटी हैं नई किताबें

किसी की शह-रग पे कोई झपटा
किसी की गलियों में ख़ून बिखरा

सुना है हम ने
कि इस शुजाअत पे तमग़ा मिलेगा उस को

बड़ी नफ़ासत से उस ने छाँटे हैं अपने रेवड़
मवेशी सारे बटे हुए हैं

ये रंग ओ ज़ात ओ नस्ल उन के बने तवीले
सब अपनी ख़ुशियों ग़मों को बाँटेंगे अपनी हद में

कि भेड़ बकरी से मिल न पाए
न गाए भैंसों में हों कुलेलें

सुना है उस के निज़ाम-ए-मुल्की पे सब हैं नाज़ाँ
उसे ही बख़्शेंगे फिर से वो मंसब-ए-हज़ारी

हमारे जैसे अजीब लोगों की आँखों में
क्यूँ है इतना पानी