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मुहाजिर परिंदों का स्वागत | शाही शायरी
muhajir parindon ka swagat

नज़्म

मुहाजिर परिंदों का स्वागत

अंजुम सलीमी

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दुनिया
मैं अपना सारा हुस्न

तेरी हथेली पर रख देता हूँ
और तू अपना सारा ज़हर

मेरे अंदर उंडेल देती है
जानती है नाँ

मैं ज़्यादा देर ख़ाली नहीं रह सकता
मेरी गूँज मुझे अपनी लपेट में लिए रखती है

सहमा पड़ा रहता हूँ देर देर तक अपने ही अंदर
अपने ख़ाली पन के सन्नाटे में

या फिर धमा-चौकड़ी करती अन-कही नज़्मों के शोर में
चुप चाप बैठ रहता हूँ अपने साथ

क्या अज़ीयत है?
अपने आप से मिलते हुए

ख़ुद-कलामी भी नहीं हो पाती मुझ से!
''बोलता हूँ तो लफ़्ज़ ज़मीं पर गिरते हैं''

रेज़ा रेज़ा हर्फ़ चुन कर आँखों से चूमता हूँ
कि अपनी सम्त लौटते समय

मैं उन्हें रौंद कर नहीं गुज़र सकता
सो कोहर की धुँद में घिरे हुए

मुहाजिर परिंदों के पर उठा लाता हूँ
अपनी किताब में रखने के लिए

तब अपना सूना-पन अच्छा लगने लगता है
जब लफ़्ज़ परिंदों की तरह मेरे आस पास

उड़ते फिरते हैं
उन के रिज़्क़ से भरा रहता है मेरा बातिन

वो अपनी नन्ही नन्ही चोंचें खोल कर
मेरे वजूद से अपने मआनी चुगते हैं

उन्ही की चहकार ले के आता हूँ
मैं तेरे लिए मेरी प्यारी दुनिया!!!