मैं जिस्म ओ जाँ के तमाम रिश्तों से चाहता हूँ
नहीं समझता कि ऐसा क्यूँ है
न ख़ाल-ओ-ख़द का जमाल उस में न ज़िंदगी का कमाल कोई
जो कोई उस में हुनर भी होगा
तो मुझ को इस की ख़बर नहीं है
न जाने फिर क्यूँ!
मैं वक़्त के दाएरों से बाहर किसी तसव्वुर में उड़ रहा हूँ
ख़याल में ख़्वाब ओ ख़ल्वत-ए-ज़ात ओ जल्वत-ए-बज़्म में शब ओ रोज़
मिरा लहू अपनी गर्दिशों में उसी की तस्बीह पढ़ रहा है
जो मेरी चाहत से बे-ख़बर है
कभी कभी वो नज़र चुरा कर क़रीब से मेरे यूँ भी गुज़रा
कि जैसे वो बा-ख़बर है
मेरी मोहब्बतों से
दिल ओ नज़र की हिकायतें सुन रखी हैं उस ने
मिरी ही सूरत
वो वक़्त के दाएरों से बाहर किसी तसव्वुर में उड़ रहा है
ख़याल में ख़्वाब ओ ख़ल्वत-ए-ज़ात ओ जल्वत-ए-बज़्म में शब ओ रोज़
वो जिस्म ओ जाँ के तमाम रिश्तों से चाहता है
मगर नहीं जानता ये वो भी
कि ऐसा क्यूँ है
मैं सोचता हूँ वो सोचता है
कभी मिले हम तो आईनों के तमाम बातिन अयाँ करेंगे
हक़ीक़तों का सफ़र करेंगे
नज़्म
मोहब्बत
उबैदुल्लाह अलीम