EN اردو
मोहब्बत | शाही शायरी
mohabbat

नज़्म

मोहब्बत

नदीम गुल्लानी

;

तुझ को गर मेरी ज़रूरत है
तो फिर जान-ए-हयात

अपने फ़र्सूदा मोहब्बत के ख़यालात बदल
हिज्र ओ ग़म रंज-ओ-अलम वस्ल ओ फ़िराक़

इस कठिन वक़्त में
बेजा सी शिकायात न कर

देख वो सब भी तो मैं
देख कि पहुँचा हूँ यहाँ

जिस को तू देख ले इक बार
तो तेरी आँखें

उम्र भर सकते के आलम से न निकल पाएँ
देख मैं इस अजब मक़ाम पे

आने से क़ब्ल
ऐसी राहों से गुज़र आया हूँ

जहाँ से तू
एक पल को भी जो गुज़रे

तो तेरे ज़ख़्म-ए-पा
बन के नासूर तुझे

दर्द में रक्खें हर दम
देख मैं चाहत-ओ-उल्फ़त का तो क़ाइल मगर

हर एक चीज़ हर एक रिश्ता ज़माने में
मोहब्बत है मगर....

देख इस वक़्त मेरे देस में
फैली हुई है

हर तरफ़ ख़ून की बारूद की
नफ़रत की फुवार

सुन ज़रा कोने में रोते हुए
बच्चे की पुकार

देख बारूद के हाथों से ये
लुथड़ा हुआ जिस्म

देख रोज़ी को भटकता हुआ
बच्चों का वो बाप

देख फिर सो गए
इस देस के बच्चे भूके

देख उस माँ की तरफ़ देख
कि जिस की आँखें

नज़रें खो बैठी हैं रोते हुए
उस आस पे कि

लौट आएगा वो उस का
जवान ल'अल कभी

घर से निकला था जो
हाथों में डिग्रियों को लिए...

आज तक लौट के आया नहीं
उम्रें बीतीं...

मुझ को ये दर्द रखा करते हैं
नींदों से परे....

सोच इस दर्द में
चाहत की किसे ख़्वाहिश हो

सोच इस दर्द में राहत की
किसे ख़्वाहिश हो

मुझ को जो करना है
वो अब उन के लिए करना है

मुझ को जीना है तो बस
उन के लिए जीना है

मैं ने माना कि नहीं और कोई
तुझ सा हसीं...

पर मुझे सोच की
इस लहर ने आ घेरा है

जिस से छुटकारा मेरी जान
अब मुमकिन ही नहीं

तुझ को गर मेरी ज़रूरत है
तो फिर जान-ए-हयात

अपने फ़र्सूदा मोहब्बत के ख़यालात बदल
हाथ में हाथ दे

और फिर तू मेरे साथ में चल...