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मेले | शाही शायरी
mele

नज़्म

मेले

जावेद अख़्तर

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बाप की उँगली थामे
इक नन्हा सा बच्चा

पहले-पहल मेले में गया तो
अपनी भोली-भाली

कंचों जैसी आँखों से
इक दुनिया देखी

ये क्या है और वो क्या है
सब उस ने पूछा

बाप ने झुक कर
कितनी सारी चीज़ों और खेलों का

उस को नाम बताया
नट का

बाज़ीगर का
जादूगर का

उस को काम बताया
फिर वो घर की जानिब लौटे

गोद के झूले में
बच्चे ने बाप के कंधे पर सर रक्खा

बाप ने पूछा
नींद आती है

वक़्त भी एक परिंदा है
उड़ता रहता है

गाँव में फिर इक मेला आया
बूढ़े बाप ने काँपते हाथों से

बेटे की बाँह को थामा
और बेटे ने

ये क्या है और वो क्या है
जितना भी बन पाया

समझाया
बाप ने बेटे के कंधे पर सर रक्खा

बेटे ने पूछा
नींद आती है

बाप ने मुड़ के
याद की पगडंडी पर चलते

बीते हुए
सब अच्छे बुरे

और कड़वे मीठे
लम्हों के पैरों से उड़ती

धूल को देखा
फिर

अपने बेटे को देखा
होंटों पर

इक हल्की सी मुस्कान आई
हौले से बोला

हाँ!
मुझ को अब नींद आती है