मौला तिरी गली में
सर्दी बरस रही थी
शायद इसी सबब से
मस्ताना हीजड़ा भी
विस्की पहन के निकला
टेनिस के बाल
कसती अंगिया में
घुस-घुसा के
पिस्तान बन गए थे
शहवत के सुर्ख़ डोरे
सुर्मा लगाने वाली
आँखों में तन गए थे
इक दम से
चलते चलते
उस ने कमर के झटके से
राह चलने वाले
शोहदों, हराम-ख़ोरों
से इल्तिफ़ात माँगा
और दावत-ए-नज़र दी
उस के ज़ख़ीम
कूल्हों ने
आग और लज़्ज़त
ख़ाली दिलों में भर दी
उस ने हथेलियों के गद्दे
रगड़ रगड़ के
वो तालियाँ उड़ाईं
मेहंदी के रंग
तितली बन के हवा में
अपने पर तौलने लगे थे
फिर जान-दार होंटों
से पान-दार बोसे
छन छन छलक छलक के
हर मंचली नज़र में
रस घोलने लगे थे
वो आज लहर में था
मिस्सी की छब दिखा के
नथने फुला फुला के
उँगली नचा नचा के
उस ने मज़े में आ के
हँस कर कहा कि ''सालो''
मैं तो जनम जनम से
अपने ही आँसुओं में
डूबा हुआ पड़ा हूँ
शायद ज़मीर-ए-आलम के
तंग मक़बरे में
ज़िंदा गड़ा हुआ हूँ
नज़्म
मस्ताना हीजड़ा
साक़ी फ़ारुक़ी