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मंज़िल के नाम | शाही शायरी
manzil ke nam

नज़्म

मंज़िल के नाम

पैग़ाम आफ़ाक़ी

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कैसे खींचूँ तिरी तस्वीर तू गुम है अब तक
तुझ को ऐ जान-ए-जहाँ मैं ने तो देखा भी नहीं

जब कभी अब्र शब-ए-मह में उड़ा जाता है
आबशारों से सदा आती है छन-छन के कहीं

या कभी शाम की तारीकी में तंहाई में
जब कभी जल्वा झलकता है तिरी यादों का

मैं सजाता हूँ ख़यालों में हसीं ख़्वाब कोई
सामने आती है दो पल के लिए तू ऐ दोस्त

और ऐ पर्दा-नशीं तेरा जो चिलमन है हसीं
मैं बढ़ाता हूँ क़दम उस को हटाने के लिए

ना-गहाँ दूर से आवाज़ कोई आती है
काँप जाता है, धड़कता है मेरा शीशा-ए-दिल

और फिर धुँदली फ़ज़ाओं में तू खो जाती है
देखता हूँ जो मैं मुड़ कर कि पस-ए-पुश्त है कौन

यास के बहर-ए-सियह-पोश पे रक़्साँ रक़्साँ
ज़हर-आलूद तबस्सुम की कटारें ले कर

कोई लहराता हुआ साया नज़र आता है