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मनफ़ी शुऊर का इक वरक़ | शाही शायरी
manafi shuur ka ek waraq

नज़्म

मनफ़ी शुऊर का इक वरक़

ज़ाहिद मसूद

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क्या इस निज़ाम को जागीर-दार बदलेगा?
जो

मेरे वोट से मुंतख़ब होता है
और

मेरे ख़्वाबों पर टेक्स लगाता है
क्या

इस निज़ाम को सरमाया-दार बदलेगा?
जो

मुझ से बारा घंटे की बेगार लेता है
मगर

आठ घंटे की उजरत देने पर भी तय्यार नहीं!
क्या दानिश-वर इस निज़ाम को बदल सकता है?

मगर वो तो
एक प्लाट या ग़ैर-मुल्की दौरे के एवज़

हुक्मरानों के लिए लुग़त में से सताइशी अल्फ़ाज़
जम्अ करता रहता है!

ताजिर इस निज़ाम को कैसे बदलेगा?
वो तो बजट की तमाम मुराआत समेट कर

सारी महँगाई
मेरे खाते में दर्ज कर देता है

सियास्त-दान इस निज़ाम का मुहाफ़िज़ क्यूँ न हो!
कि उस की बरकत से

वो सरकारी स्कूल और डिसपेंसरी में अपनी भैंस बाँध सकता है
और

साया देने वाले ग़ैर-सरकारी दरख़्त के नीचे
क्लास लेने वाले ज़िद्दी टीचर को

अपनी पजेरो से बाँध कर घसीटे जाने की धमकी देता है
मैं ने

सहाफ़ी से इस निज़ाम को बदलने की दरख़्वास्त की
मगर वो

थाना मुहर्रिर के पास बैठ कर चाय पीने और ख़बरें लिखने में मगन था
ये सब जानते हुए

मैं अगले पाँच साल के लिए
अपना चेहरा अपने हल्क़े के पटवारी को दे दूँगा

जो उसे
अक्स-ए-शजरा में लपेट कर रख लेगा

और
वोट की पर्ची पर मेरा अँगूठा ख़ुद ही लगा लेगा