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मकान | शाही शायरी
makan

नज़्म

मकान

कैफ़ी आज़मी

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आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी

सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी

ये ज़मीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटती शाख़ों से उतारे हम ने

उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हम ने

हाथ ढलते गए साँचे में तो थकते कैसे
नक़्श के बाद नए नक़्श निखारे हम ने

की ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद
बाम ओ दर और, ज़रा और सँवारे हम ने

आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शम्ओं की लवें
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हम ने

बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए

अपनी नस नस में लिए मेहनत-ए-पैहम की थकन
बंद आँखों में उसी क़स्र की तस्वीर लिए

दिन पिघलता है उसी तरह सरों पर अब तक
रात आँखों में खटकती है सियह तीर लिए

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी

सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी