आख़िरी रात थी वो
मैं ने दिल से ये कहा
हर्फ़ जो लिक्खे गए
और जो ज़बाँ बोली गई
सभी बे-कार गए
मैं भी अब हार गया यार भी सब हार गए
कोई चारा नहीं जुज़-तर्क-ए-तअल्लुक़ ऐ दिल
इक सदा और सही आख़िरी बार
जिस्म से छेड़ा उसे रूह से छू ले उसे
आख़िरी बार बहे साज़-ए-बदन से कोई नग़्मा कोई लै
आख़िरी रात है ये
आख़िरी बार है ये ज़ाइक़ा-ए-बोसा-ओ-लम्स
आख़िरी बार छलक जाए लहू
गर्मी-ए-जाँ से महक जाए नफ़स की ख़ुश्बू
ख़्वाब में ख़्वाब के मानिंद उतर जा ऐ दिल
आख़िरी रात थी वो
फिर गुज़र कू-ए-नदामत से हुआ तो देखा
बाम रौशन है जो था
और दरवाज़े पे दस्तक है वही
मेरा क़ातिल दर-ओ-दीवार पे कुछ नक़्श बनाता है अभी
उँगलियाँ ख़ून से तर दिल-ए-कम-ज़र्फ़ को है वाहम-ए-अर्ज़-ए-हुनर
दिन की हर बात हुई बे-तौक़ीर
रात है और ज़मीर
चश्म है मुंतज़िर-ए-ख़्वाब-ए-दिगर
ख़्वाब आते हैं ठहरते हैं चले जाते हैं
और क़ातिल की सज़ा ये भी कि मैं ज़िंदा हूँ
नज़्म
मैं ज़िंदा हूँ
उबैदुल्लाह अलीम