मैं काएनात में सय्यारों में भटकता था
धुएँ में धूल में उलझी हुई किरन की तरह
मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक़्त से कट कर जो लम्हा उस की तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ ढूँडता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब जिस्म में भटकता हूँ
लबों से चूम लो आँखों से थाम लो मुझ को
तुम्हारी कोख से जन्मूँ तो फिर पनाह मिले!
नज़्म
मैं काएनात में
गुलज़ार