सड़कों पे बे-शुमार गुल-ए-ख़ूँ पड़े हुए
पेड़ों की डालियों से तमाशे झड़े हुए
कोठों की ममटियों पे हसीं बुत खड़े हुए
सुनसान हैं मकान कहीं दर खुला नहीं
कमरे सजे हुए हैं मगर रास्ता नहीं
वीराँ है पूरा शहर कोई देखता नहीं
आवाज़ दे रहा हूँ कोई बोलता नहीं

नज़्म
मैं और शहर
मुनीर नियाज़ी