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मगर-मछ के आँसू | शाही शायरी
magar-machh ke aansu

नज़्म

मगर-मछ के आँसू

मख़मूर जालंधरी

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सुनते हैं याद मुसीबत में ख़ुदा आता है
आसरा इक यही मजबूर की तक़दीर में रह जाता है

''खोल दो बंद कलीसाओं के दर खोल भी दो
माना मानूस नहीं हाथ दुआओं से दुआएँ माँगें

मम्लिकत पर कहीं ख़ुर्शीद न हो जाए ग़ुरूब
हुक्म दे दो कि सभी अपने ख़ुदाओं से दुआएँ माँगें''

जी पे बन जाए तो ज़िल्लत भी उठा लेते हैं
सुनते हैं बाप मुसीबत में गधे को भी बना लेते हैं

''नाग है अपना मुआविन तो कोई बात नहीं
काम लेना है हमें नाग ख़ज़ाने पे बिठा लो अपने

शहद का घूँट समझ कर सम-ए-क़ातिल पी जाओ
किसी क़ीमत किसी उजरत पे उसे साथ मिला मिला लो अपने''

सारा धन जाता है तो निस्फ़ लुटा देते हैं
सुनते हैं बच्चे जो चीख़ें उन्हें अफ़यून खिला देते हैं

''सब को बख़्शेंगे मसाइब की सलासिल से नजात
जंग लड़ते हैं सदाक़त की, मुसावात की एलान करो

अपनी मन-मानी ही आख़िर में करेंगे अब तो
दहर को वादा-ए-पुर-कैफ़ से मिन्नत-कश-ए-एहसान करो

नाग डसता है, उसे दूध पिलाओ कितना
सूखी बैरी से कभी बैर नहीं झड़ते, हिलाओ कितना''

''अहद-ए-आलाम भी मादूम, ख़ुदा भी मादूम
कोई ख़दशा नहीं फिर से सितम-ओ-जौर को अर्ज़ां कर लो

फ़तह का जश्न मनाना है मगर धूम के साथ
अपने घर हुस्न से या ख़ून की बूँदों से चराग़ाँ कर लो

अपने महकूमों की हस्ती भी कोई हस्ती है
ये तो वादों पे भी जी सकते हैं उन से नए पैमाँ कर लो''

तीरगी बढ़ती है तूफ़ान उमड आता है
बदलियाँ छा के बरसती हैं फ़लक फिर से निखर जाता है