EN اردو
मछली की बू | शाही शायरी
machhli ki bu

नज़्म

मछली की बू

मोहम्मद अल्वी

;

बिस्तर में लेटे लेटे
उस ने सोचा

''मैं मोटा होता जाता हूँ
कल मैं अपने नीले सूट को

ऑल्टर करने
दर्ज़ी के हाँ दे आऊँगा

नया सूट दो-चार महीने बाद सही!
दर्ज़ी की दूकान से लग कर

जो होटल है
उस होटल की

मछली टेस्टी होती है
कल खाऊँगा

लेकिन मछली की बू साली
हाथों में बस जाती है

कल साबुन भी लाना है
घर आते

लेता आऊँगा
अब के ''यार्डली'' लाऊँगा

ऑफ़िस में कल काम बहुत है
बॉस अगर नाराज़ हुआ तो

दो दिन की छुट्टी ले लूँगा
और अगर मूड हुआ तो

छे के शो में
''राम-और-श्याम'' भी देख आऊँ गा

पिक्चर अच्छी है साली
नौ से बारा

कलब रमी
दो दिन से लक अच्छा है

कल भी साठ रूपे जीता था
आज भी तीस रूपे जीता हूँ

और उम्मीद है
कल भी जीत के आऊँगा

बस अब नींद आए तो अच्छा
कल भी

जीत के
नींद आए तो

इक्का-दुक्की नहला-दहला
ईंट की बेगम

मछली की बू
ताश के पत्ते

जोकर जोकर
सूट पहन कर

मोटा-तगड़ा जोकर....
इतना बहुत सा सोच के वो

सोया था मगर
फिर न उठा!!

दूसरे दिन जब
उस का जनाज़ा

दर्ज़ी की दूकान के पास से गुज़रा तो
होटल से मछली की बू

दूर दूर तक आई थी!!!