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मावरा | शाही शायरी
mawara

नज़्म

मावरा

वहीद अख़्तर

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राह चलते हुए इक मोड़ पे दूर अज़ उम्मीद
आँख झपकी तो मिरे सामने वो शोख़ परी-पैकर था

मेरे पहलू से वो गुज़रा मगर इस तरह कि चेहरे पे था हाथ
एक मीठी सी ख़लिश छोड़ गई दिल में ये जाँ-सोज़ अदा

मावराई साया जल्वा जो गुरेज़ाँ है मिरी नज़रों से
मेरी बाँहों की हरारत में कभी शम्अ के मानिंद पिघल जाता था

क़ुर्ब की आँच से ये पैकर-ए-नूर
इश्क़ की आतिश-ए-सय्याल में ढल जाता था

एक शोला सा रग-ओ-पै में मचल जाता था
ये कोई दश्त-ए-तसव्वुर का हसीं मोड़ न था

जहाँ रम-दीदा ग़ज़ालान-ए-तख़य्युल ने उसे देखा हो
ये कोई ख़्वाब-ए-दिल-आवेज़ न था

मोड़ ओझल हुआ नज़रों से तो फिर राह वही लोग वही
सिर्फ़ वो चेहरा वो आँखें वो ख़त-ओ-ख़ाल न थे

जिन से बढ़ कर कोई नज़रों का शनासा भी नहीं
हाए वो लम्हा-ए-पराँ वो दिल-आवेज़ अदा

यूँ मिले जैसे कभी मैं ने उन्हें देखना चाहा भी नहीं
है रिवायत कि ख़ुदावंद-ए-ख़ुदायाँ-ए-जहाँ

अपनी रूयत से मुशर्रफ़ यूँही फ़रमाता है उन बंदों को
जो उस की लगन में शब ओ रोज़

हम्द ओ तस्बीह ओ सना और मुनाजात ओ दुआ करते हैं
सिर्फ़ इक दीद की हसरत में जिया करते हैं

आँखों में काट दिया करते हैं रात
तब किसी लम्हे में वो ज़ात-ए-मुनज़्ज़ह कि जो है ख़ातमा-ए-जुमला-सिफ़ात

शोला-ए-हुस्न-ए-अज़ल रूह-ए-जहाँ जान-ए-हयात
सुब्ह के नूर के मानिंद निगाहों को मुनव्वर करता

अर्श से फ़र्श पे करता है नुज़ूल
और उसी लम्हा वो बद-बख़्त वो मर्ताज़ी-ए-तस्बीह-ओ-रुकु-ओ-सज्दा

नश्शा-ए-तिश्नगी-ए-दीद से चूर
ख़ानक़ाहों के किसी गोशे में सो जाते हैं

जिस तरह हसरत-ए-दीदार में इक उम्र गुज़ारी ही नहीं
आरती जैसे कभी उस की निगाहों ने उतारी ही नहीं

और वो रब्ब-ए-जहाँ राहत-ए-जाँ
मावरा-ए-निगह-ए-कौन-ओ-मकाँ

मुँह छुपाए हुए हाथों से गुज़र जाता है
हसरत-ए-दीद दर-ओ-बाम से सर फोड़ती रह जाती है