जाने किन रहगुज़ारों से
दौड़े चले आते हैं
लाशें भंभोड़ते, बू सूँघते
बैठ गए हैं लोग
कि बैठे हुओं को काटते नहीं!
वीरानी के अक़ब में
रास्तों और शाह-राहों के कोहराम
और जलती-बुझती रौशनियों के तआक़ुब में
फटे हुए हलक़ के साथ
गाड़ियों के साथ साथ भागते हैं
दीवार पर
टाँग उठा चुकने के ब'अद
मुआफ़ कीजिएगा
फ़तह-अली-ख़ाँ साहिब!
आप का अलाप, कानों में जम गया है
मुर्कियाँ टूटती हैं
हम रुख़्सत हो रहे हैं
जीने के जवाज़ से दस्त-बरदार
पटाख़ों से पतलूनें बचाते
फुदकते फिरते हैं
हमारी क़ौमी मौसीक़ी
काफ़ूर की महक से भी ख़ाली है
सड़ांद है चहार जानिब
और भूँकने की आवाज़ें
बे-सुर, बे-ताल
जान की अमान पाऊँ
तो सीधा आप ही की तरफ़ आऊँगा!
नज़्म
माफ़ कीजिए गा ख़ान साहिब
अबरार अहमद