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माफ़ कीजिए गा ख़ान साहिब | शाही शायरी
maf kijiye ga KHan sahib

नज़्म

माफ़ कीजिए गा ख़ान साहिब

अबरार अहमद

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जाने किन रहगुज़ारों से
दौड़े चले आते हैं

लाशें भंभोड़ते, बू सूँघते
बैठ गए हैं लोग

कि बैठे हुओं को काटते नहीं!
वीरानी के अक़ब में

रास्तों और शाह-राहों के कोहराम
और जलती-बुझती रौशनियों के तआक़ुब में

फटे हुए हलक़ के साथ
गाड़ियों के साथ साथ भागते हैं

दीवार पर
टाँग उठा चुकने के ब'अद

मुआफ़ कीजिएगा
फ़तह-अली-ख़ाँ साहिब!

आप का अलाप, कानों में जम गया है
मुर्कियाँ टूटती हैं

हम रुख़्सत हो रहे हैं
जीने के जवाज़ से दस्त-बरदार

पटाख़ों से पतलूनें बचाते
फुदकते फिरते हैं

हमारी क़ौमी मौसीक़ी
काफ़ूर की महक से भी ख़ाली है

सड़ांद है चहार जानिब
और भूँकने की आवाज़ें

बे-सुर, बे-ताल
जान की अमान पाऊँ

तो सीधा आप ही की तरफ़ आऊँगा!