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मा-बा'द जदीद | शाही शायरी
ma-baad jadid

नज़्म

मा-बा'द जदीद

ज़ुबैर रिज़वी

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मैं ने अपने लिखने पढ़ने के कमरे में
क़लम बिना इक नज़्म लिखी है

नज़्म को मैं ने
कुछ ऐसे तरतीब दिया है

सब से पहले टुक टुक करती
एक घड़ी है

फिर है कैलेंडर
इस के बा'द है

पीतल की इक शम्अ'-दानी ऐश-ट्रे
फिर बीजिंग शाम और सिंगापुर की

चीनी और ताँबे की प्लेटें
फिर थोड़ी सी जगह बना के

शीशे का गुल-दान रखा है
उस से आगे

मुसव्विरी और थेटर पर
दो तीन किताबें

वहीं पे तिरछी कर के रखी
क़ुलक़ुल करती एक सुराही

सब के बीच में नन्हा सा
इक जोकर भी है

ये मेरी वो पहली नज़्म है
जिस में कोई लफ़्ज़ नहीं है

बस पैकर हैं
मेरी पहली नज़्म है

जो क़ारी और सामेअ'
दोनों से आज़ाद हुई है

आँखों की हमराज़ हुई है