EN اردو
लुहार जानता नहीं | शाही शायरी
luhaar jaanta nahin

नज़्म

लुहार जानता नहीं

अली अकबर नातिक़

;

हमारे गाँव का लुहार अब दराँतियाँ बना के बेचता नहीं
वो जानता है फ़स्ल काटने का वक़्त कट गया सरों को काटने के शग़्ल में

वो जानता है बाँझ हो गई ज़मीन जब से ले गए नक़ाब-पोश गाँव के मवेशियों को शहर में
जो बरमला सदाएँ दे के ख़ुश्क ख़ून बेचते हैं बे-यक़ीन बस्तियों के दरमियाँ

उदास दिल ख़मोश और बे-ज़बाँ कबाड़ के हिसार में सियाह कोएलों से गुफ़्तुगू
तमाम दिन गुज़ारता है सोचता है कोई बात रूह के सराब में

कुरेदता है ख़ाक और ढूँडता है चुप की वादियों से सुर्ख़ आग पर वो ज़र्ब
जिस के शोर से लुहार की समाअतें क़रीब थीं

बजाए आग की लपक के सर्द राख उड़ रही है धूँकनी के मुँह से
राख जिस को फाँकती है झोंपड़ी की ख़स्तगी

सियाह छत के ना-तवाँ सुतून अपने आँकड़ों समेत पीटते हैं सर
हरारतों की भीक माँगते हैं झोंपड़ी के बाम ओ दर

जो भट्टियों की आग के हरीस थे
धुएँ के दाएरों से खींचते थे ज़िंदगी

मगर अजीब बात है हमारे गाँव का लुहार जानता नहीं
वो जानता नहीं कि बढ़ गई हैं सख़्त और तेज़ धार ख़ंजरों की क़ीमतें

सो जल्द भट्टियों का पेट भर दे सुर्ख़ आग से