लोग कहते हैं कि पर्बत से निकल कर चश्मे
किसी खोई मंज़िल की तरफ़ बहते हैं
और सर-ए-शाम हवा उन के लिए चलती है
जिन के महबूब बहुत दूर कहीं रहते हैं
कोई पैग़ाम नहीं जिस की तवक़्क़ो हो मुझे
किस लिए गोश-बर-आवाज़ हूँ मा'लूम नहीं
जो कभी दिल में तमन्ना थी वो आग़ोश में है
अब किधर माइल-ए-परवाज़ हूँ मा'लूम नहीं
नहीं मा'लूम कि उस ग़म की हक़ीक़त क्या है
अश्क बन कर मिरी आँखों से बहा जाता है
लब पे आता नहीं वो जज़्बा-ए-बेताब मगर
गीत बनने के लिए दिल में रहा जाता है
नज़्म
लोग कहते हैं
सैफ़ुद्दीन सैफ़