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लज़्ज़त-ए-इरफ़ाँ | शाही शायरी
lazzat-e-irfan

नज़्म

लज़्ज़त-ए-इरफ़ाँ

ज़े ख़े शीन

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रंग-ए-फ़ितरत है वज्ह-ए-हैरानी
अक़्ल है और हया-ए-नादानी

राज़-दाँ मुद्दआ' को कहते हैं
हुस्न उल्फ़त का दाग़-ए-पेशानी

हुस्न-ए-बाक़ी ने दिल को खींच लिया
रुख़्सत ऐ हुस्न-ए-हस्ती-ए-फ़ानी

दिल है वक़्फ़-ए-रजा-ए-रहम-ओ-करम
जाँ है नज़्र-ए-रज़ा-ए-रब्बानी

अब मैं समझी कि है फ़ना-ए-ख़ुदी
इम्बिसात-ए-बहिश्त-ए-लाफ़ानी

ग़म न कर है नक़ीब-ए-अब्र-ए-बहार
ख़ुश्की-ए-मौसम-ए-ज़मिस्तानी

दिल-ए-सद-पारा के अलम गिन लूँ
देखी जाएगी सुब्हा-गर्दानी

कर सके तय न मुल्क-ए-इरफ़ाँ को
रूमी ओ मग़रिबी ओ किरमानी

दूरी-ए-बज़्म-ए-दोस्त के ग़म में
महव-ए-अफ़्ग़ाँ है इक अफ़्ग़ानी

अर्श के कंगरे पे ताइर-क़ुद्स
रात करता था यूँ ख़ुश-इल्हानी

कि है इंसाँ तिलिस्म-ए-शान-ए-ख़ुदा
क़द्र अपनी न इस ने पहचानी

बंद कीं उस ने जब ज़रा आँखें
खुल गया राज़-ए-बज़्म-ए-इम्कानी

चारा-ए-रूह फ़लसफ़ी है न शैख़
एक वहमी है एक ख़फ़क़ानी

कसरत-ईन-ओ-आँ में वहदत-ए-दोस्त
कुंज-ए-नायाब की फ़रावानी

शैख़ रंज-ए-बयाँ का डर न करे
ला-बयाँ है ये कैफ़-ए-वज्दानी

मुतशक्किक है और शिकायत-ए-हिज्र
नुज़हत और शुक्र-ए-लुत्फ़-ए-पिन्हानी