ढल चुका दिन और तेरी क़ब्र पर
देर से बैठा हुआ हूँ सर-निगूँ
रूह पर तारी है इक मुबहम सुकूत
अब वो सोज़-ए-ग़म न वो साज़-ए-जुनूँ
मुस्तक़िल महसूस होता है मुझे
जैसे तेरे साथ मैं भी दफ़्न हूँ
नज़्म
लौह-ए-मज़ार
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
जाँ निसार अख़्तर
ढल चुका दिन और तेरी क़ब्र पर
देर से बैठा हुआ हूँ सर-निगूँ
रूह पर तारी है इक मुबहम सुकूत
अब वो सोज़-ए-ग़म न वो साज़-ए-जुनूँ
मुस्तक़िल महसूस होता है मुझे
जैसे तेरे साथ मैं भी दफ़्न हूँ