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लौह-ए-मज़ार | शाही शायरी
lauh-e-mazar

नज़्म

लौह-ए-मज़ार

जाँ निसार अख़्तर

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ढल चुका दिन और तेरी क़ब्र पर
देर से बैठा हुआ हूँ सर-निगूँ

रूह पर तारी है इक मुबहम सुकूत
अब वो सोज़-ए-ग़म न वो साज़-ए-जुनूँ

मुस्तक़िल महसूस होता है मुझे
जैसे तेरे साथ मैं भी दफ़्न हूँ