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लब पर नाम किसी का भी हो | शाही शायरी
lab par nam kisi ka bhi ho

नज़्म

लब पर नाम किसी का भी हो

इब्न-ए-इंशा

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लब पर नाम किसी का भी हो, दिल में तेरा नक़्शा है
ऐ तस्वीर बनाने वाली जब से तुझ को देखा है

बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है

नीले पर्बत ऊदी धरती, चारों कूट में तू ही तू
तुझ से अपने जी की ख़ल्वत तुझ से मन का मेला है

आज तो हम बिकने को आए, आज हमारे दाम लगा
यूसुफ़ तो बाज़ार-ए-वफ़ा में, एक टिके को बिकता है

ले जानी अब अपने मन के पैराहन की गिर्हें खोल
ले जानी अब आधी शब है, चार तरफ़ सन्नाटा है

तूफ़ानों की बात नहीं है, तूफ़ाँ आते जाते हैं
तू इक नर्म हवा का झोंका, दिल के बाग़ में ठहरा है

या तू आज हमें अपना ले, या तू आज हमारा बन
देख कि वक़्त गुज़रता जाए कौन अबद तक जीता है

फ़र्दा महज़ फ़ुसूँ का पर्दा, हम तो आज के बंदे हैं
हिज्र ओ वस्ल, वफ़ा और धोका सब कुछ आज पे रक्खा है