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ला-इल्मी | शाही शायरी
la-ilmi

नज़्म

ला-इल्मी

नील अहमद

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मिरे कमरे की अलमारी
भरी है जिन किताबों से

मैं उन को रोज़ पढ़ती हूँ
मैं लफ़्ज़ों में छुपी तर्ग़ीब के लहजे समझती हूँ

खुबी कुछ लाईनों के दरमियाँ मौजूद मतलब को
वरक़ पे लिख के अपने पास यूँ महफ़ूज़ करती हूँ

कि जैसे माहियत लफ़्ज़ों की सारी जान ली मैं ने
ज़रा सा ग़ौर करने पर हक़ीक़त यूँ खुली मुझ पर

कि जो भी इल्म सीखा है
फ़क़त ये इल्म देता है

कि मैं ला-इल्म हूँ अब तक