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क्या वहीं मिलोगे तुम | शाही शायरी
kya wahin miloge tum

नज़्म

क्या वहीं मिलोगे तुम

दर्शिका वसानी

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कुछ दिनों से मैं जब भी
आईने में अपनी हल्की सफ़ेद लटें देखती हूँ

एक जाना-पहचाना रास्ता नज़र आता है
जिस के एक किनारे तुम चल रहे हो

दूसरे पे मैं चुप-चाप अजनबी बन कर
तुम्हारा धुँदला सा चेहरा

वो काली फ़्रेम वाले चश्मे
कानों के पास उगी हुई

कुछ ऐसी ही सफ़ेद लकीरें
मैं तुम्हें ग़ौर से देख नहीं पा रही

बस चलते जा रही हूँ तुम्हारे साथ
तुम से दूर ख़ामोशी से

इस बार गुल-मोहर के पेड़ की तरफ़ नहीं
एक ढलती हुई शाम की ओर

डूबते हुए सूरज की तरफ़
वो सफ़ेद लकीरें अब फैल रही है

हल्की सुनहरी रौशनी में चाँदी सी चमकती
वो चमक मेरी उँगलियों में उतर आती है

तुम से दूर हूँ फिर कैसे
अंदरूनी थकान धीरे धीरे बढ़ रही है

मैं पुकारना चाहती हूँ तुम्हें
हाथ बढ़ा कर छूना

शायद तुम भी मगर
काफ़ी दूर आ चुके है हम

और अचानक वो शाम
गहरे अँधेरे कुएँ में डूबने लगती है

एक भँवर मुझे कहीं खींच रही है
मैं अब तुम्हें देख नहीं पा रही

और तुम भी मुझे ढूँढ रहे होंगे
तुम अब भी दूर हो या पास

किस किनारे पे हो अब तुम
कहीं ये रात तो नहीं

वही रात जिस का तुम ज़िक्र किया करते थे
वही रात जिस का दिन नहीं होता

जहाँ हम मिल सकते है
क्या यहीं मिलोगे तुम मुझे