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क्या गुल-बदनी है | शाही शायरी
kya gul-badani hai

नज़्म

क्या गुल-बदनी है

जोश मलीहाबादी

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किस दर्जा फ़ुसूँ-कार वो अल्लाह ग़नी है
क्या मौजा-ए-ताबिंदगी ओ सीम-तनी है

अंदाज़ है या जज़्बा-ए-गरदूँ-ज़दनी है
आवाज़ है या बरबत-ए-ईमाँ-शिकनी है

जंगल की सियह रात है या ज़ुल्फ़ घनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

ये लय है कि खिलती हुई ग़ुंचे की कमानी
महका हुआ ये तन है कि ये रात की रानी

लहजे की ये रौ है कि बरसता हुआ पानी
लर्ज़िश में ये मिज़्गाँ है कि परियों की कहानी

ये सुर्ख़ी-ए-लब है कि अक़ीक़-ए-यमनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

मेहराब है रुख़्सार के परतव से ज़र-अफ़्शाँ
ज़ुल्फ़ों में शब-ए-तार है आँखों में चराग़ाँ

मेहंदी की सजावट कि हथेली पे गुलिस्ताँ
या हल्क़ा-ए-उश्शाक़ में है चेहरा-ए-ताबाँ

या ख़ातम-ए-ताबिंदा पे हीरे की कनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

सीने पे ये पल्लू है कि इक मौज-ए-हयाबी
माथा है कि इक सुब्ह का परतव है शहाबी

आँखें हैं कि बहके हुए दो मस्त शराबी
पैकर है कि इंसान के साँचे में गुलाबी

गेसू हैं कि गुल-बाज़ी-ए-मुश्क-ए-ख़ुतनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

काकुल में दरख़्शाँ है ये पेशानी-ए-रक़्साँ
या साया-ए-ज़ुल्मात में है चश्मा-ए-हैवाँ

हाथों पे है ये चेहरा कि है रेहल पे क़ुरआँ
और चेहर-ए-गुल-रंग में ग़लताँ ओ ख़रोशाँ

रख़शंदगी-ए-ख़ून-ए-रग-ए-यासिमनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

इश्वे हैं कि इक फ़ौज खड़ी लूट रही है
छल-बल है कि छाती को ज़मीं कूट रही है

अंगड़ाई का ख़म है कि धनक टूट रही है
मुखड़ा है कि पर्बत पे किरन फूट रही है

क़ामत है कि बर्नाई-ए-सर्व-ए-चमनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

तन में है वो ख़ुशबू कि हैं गुल सर-ब-गरेबाँ
चेहरे पे वो सुर्ख़ी है कि हैरान गुलिस्ताँ

वो चाल में है लोच कि शाख़ें हैं पशेमाँ
और लाल-ए-गुहर-बार पे वो नग़्मा है ग़लताँ

वो नग़्मा कि इक वलवला-ए-शोला-ज़नी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

गर्दन में चंदन-हार है हाथों में है कंगन
उमडे हुए इश्वे हैं गरजता हुआ जौबन

जौलाँ है जवानी के धुँदलके में लड़कपन
कोरा है जो पिण्डा तो जुनूँ-ख़ेज़ है उबटन

गुल-रंग शलूका है क़बा नारदनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

ख़ल्वत में वो तस्लीम है जल्वत में तहक्कुम
साहिल पे सुबुक-मौज सफ़ीने में तलातुम

हुजरे में ख़मोशी है शबिस्ताँ में तकल्लुम
ख़ेमे में तुनुक आह ख़यालों में तरन्नुम

आग़ोश में तलवार है घूँघट में बनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है

हर नक़्श-ए-क़दम पर है फ़िदा ताज-ए-कयानी
हर गाम में है चश्मा-ए-कौसर की रवानी

हर एक बुन-ए-मू से उबलती है जवानी
उठती है मसामात से यूँ भाप सी धानी

गोया कोई महकी हुई चादर सी तनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है