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कुत्तों का नौहा | शाही शायरी
kutton ka nauha

नज़्म

कुत्तों का नौहा

ज़ुबैर रिज़वी

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पुरानी बात है
लेकिन ये अनहोनी सी लगती है

बनी-क़ुद्दूस के बेटों का
ये दस्तूर था

वो अपनी शमशीरें
नियामों में न रखते थे

मुसल्लह हो के सोते थे
और उन के ख़ूब-रू गबरू

कसे तीरों की सूरत
रात-भर

मिशअल-ब-कफ़
ख़ेमों के बाहर जागते रहते

बनी-क़ुद्दूस के बेटे
बलाओं और अज़ाबों को

हमेशा लग़्ज़िश-ए-पा का सिला गिनते
गुनाहों से हज़र करते

मगर इक दिन
कि वो मनहूस साअत थी ख़राबी की

ज़नान-ए-नीम-उर्यां देख कर ख़ाना-ब-दोशों की
कुछ ऐसे मर-मिटे

जब रात आई तो
बनी-क़ुद्दूस के बेटों की शमशीरें

नियामों में पड़ी थीं
और दीवारों पे लटकी थीं

वो पहली रात थी
ख़ेमों के बाहर घुप-अंधेरा था

फ़ज़ा में दूर तक
कुत्तों की आवाज़ों का नौहा था