मैं इक हसीं ख़्वाब देखता हूँ
मैं देखता हूँ
वो किश्त-ए-वीराँ
कि सालहा-साल से
जो अब्र को भी तरस रही थी
वो किश्त-ए-वीराँ
कि जिस के लब ख़ुश्क हो चुके थे
जो अब्र-ए-नैसाँ की मुंतज़र थी
जो कितनी सदियों से
बाद-ओ-बाराँ की मुंतज़िर थी
मैं देखता हूँ
उस अपनी मग़्मूम किश्त-ए-वीराँ पे
कुछ घटा नहीं
जो आज लहरा के छा गई हैं
ये सर्द हवा के झोंके
न रुक सके जो किसी के रोके
ज़रा तमाज़त जो कम हुई है
हयात कुछ मोहतरम हुई है
मैं इक हसीं ख़्वाब देखता हूँ
मैं देखता हूँ
कि जैसे शब की सियाह चादर
सिमट रही है
वो तीरगी
हम जिसे मुक़द्दर समझ चुके थे
वो छट रही है
मैं देखता हूँ
कि सुब्ह-ए-फ़र्दा
हज़ार रानाइयाँ जिलौ में
लिए मुस्कुरा रही है
मैं देखता हूँ
जबीं उफ़ुक़ की जो नूर-ए-फ़र्दा से है मुनव्वर
सहर का पैग़ाम दे रही है
जो रौशनी का
जो ज़िंदगी का
हर इक को इनआ'म दे रही है
नज़्म
ख़्वाब देखता हूँ
सुरूर बाराबंकवी