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ख़ुशा ज़मानत-ए-ग़म | शाही शायरी
KHusha zamanat-e-gham

नज़्म

ख़ुशा ज़मानत-ए-ग़म

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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दयार-ए-यार तिरी जोशिश-ए-जुनूँ पे सलाम
मिरे वतन तिरे दामान-ए-तार-तार की ख़ैर

रह-ए-यक़ीं तिरी अफ़शान-ए-ख़ाक-ओ-ख़ूँ पे सलाम
मिरे चमन तिरे ज़ख़्मों के लाला-ज़ार की ख़ैर

हर एक ख़ाना-ए-वीराँ की तीरगी पे सलाम
हर एक ख़ाक-बसर, ख़ानुमाँ-ख़राब की ख़ैर

हर एक कुश्ता-ए-ना-हक़ की ख़ामुशी पे सलाम
हर एक दीदा-ए-पुर-नम की आब-ओ-ताब की ख़ैर

रवाँ रहे ये रिवायत, ख़ुशा ज़मानत-ए-ग़म
नशात-ए-ख़त्म-ए-ग़म-ए-काएनात से पहले

हर इक के साथ रहे दौलत-ए-अमानत-ए-ग़म
कोई नजात न पाए नजात से पहले

सकूँ मिले न कभी तेरे पा-फ़िगारों को
जमाल-ए-ख़ून-ए-सर-ए-ख़ार को नज़र न लगे

अमाँ मिले न कहीं तेरे जाँ-निसारों को
जलाल-ए-फ़र्क़-ए-सर-ए-दार को नज़र न लगे