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ख़ुदा से कलाम | शाही शायरी
KHuda se kalam

नज़्म

ख़ुदा से कलाम

इंजिला हमेश

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ख़ुदा-ए-बर्तर
तेरी वहदानियत की क़सम

जब भी तेरे आगे सर-ब-सुजूद हुई
तो निय्यत की

कि ज़मीन के उन तमाम ख़ुदाओं को रद्द करती हूँ
जो अपने ओहदों के आगे

मुझे झुकाने पर ब-ज़िद रहे
ऐ हमेशा रहने वाली ज़ात

जब कोई जिस्म-ए-ख़ाकी ताक़त के नशे में
किसी कमज़ोर को कुचलता है

तब गुज़रता वक़्त इस पर बहुत हँसता है
ऐ राज़िक़-ए-रहीम

हम ऐसे निज़ाम को भोग रहे हैं
जहाँ एक की बक़ा दूसरे की भूक पर क़ाबिज़ होने में है

तू कि वाक़िफ़ है दिलों के भेद से
ऐसे हालात आ जाते हैं कि

सच गोशा-नशीन हो जाता है
शराफ़त और हया पे

संग-बारी होती है
ऐ ख़ालिक़-ए-काएनात

तू ने अपने कलाम में ज़मीन का दुख बयान किया है
जो अन-गिनत मज़ालिम अपने ऊपर झेलती है

इस ज़मीन की ख़ामोशी की क़सम
सारे ज़ालिम अपनी दश्त अपनी सफ़्फ़ाकियों का खेल रचाते रचाते

एक दिन ज़मीन के अंदर चले जाते हैं
ऐ ख़ुदा-ए-अज़ीम

ये ज़मीन मेरा बिछौना
मैं ने उस की ख़ामुशी को अपने सीने में उतारा

तेरे अता किए हुए हौसले ने
मेरे क़दम उखड़ने नहीं दिए

वर्ना
किसी ड्रिल-मशीन की तरह

जुमले दिल में सूराख़ करते गए
तशन्नुज-ज़दा चेहरों पर हँसी तब दिखाई दी

जब आँखों से ख़्वाब छीन लिए गए
ऐ मेरे पर्वरदिगार

हमें एक ऐसा मुआ'शरा दिया गया
जहाँ हमारे फेपड़ों पे पाँव रख के हुक्मरानी करने वाले

हमारी साँस के चलने रुकने का तमाशा देखते हैं
तमाशा-बीनों की आँखों उस अंत की मुंतज़िर होती हैं

कि जब इन से ज़िंदा रहने की भीक माँगी जाए
ऐ मेरे माबूद

मैं ने ऐसे ही कगार पे
तेरी बरतरी तलब की

ऐ मेरे दुखों के राज़-दाँ
तू वाक़िफ़ है

जब मेरे इर्द-गिर्द गिर्या-ए-वहशत तारी था
और मुझे बताया जा रहा था

कि सरतान मेरे बाप को खा रहा है
वो वक़्त था कि न कोई हर्फ़-ए-तसल्ली काम आ सकता था न कोई उम्मीद बाक़ी रह गई थी

मेरी आँखें ख़ुश्क थीं
मेरे सारे आँसू मेरे अंदर गिरते गए

वो वक़्त था मेरे माबूद
जब तू ने मेरे क़ल्ब को ग़म से लबरेज़ कर के

मेरी तर्बियत की थी
मुझे बावर हुआ

कि आने वाले वक़्त में क़दम क़दम पे
मुझे सरतान का सामान करना होगा

फ़िक़्रों में क़हक़हों में
उस शैतान को कंकरी कौन मारे

जो तारीक दिलों के मिना में बैठा है
मेरे मौला

मैं किसी मो'जिज़े की मुंतज़िर नहीं
बस इतनी हिम्मत दे मुझे

कि तीरगी के मुक़ाबिल
रौशनी को हमेश्गी दे दूँ