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ख़ुदा के क़ातिल | शाही शायरी
KHuda ke qatil

नज़्म

ख़ुदा के क़ातिल

जोश मलीहाबादी

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वफ़ा के पैमान सब भुला कर
जफ़ाएँ करते वफ़ा के क़ातिल

रसूल-ए-हक़ के जो उम्मती हैं
वही हैं आल-ए-एबा के क़ातिल

ये उस की अपनी ही मस्लहत है
वो जिस्म रखता नहीं है वर्ना

ये मंसबों के ग़सब के आदी
ज़रूर होते ख़ुदा के क़ातिल

न ही अमानत न ही दियानत
न ही सदाक़त न ही शराफ़त

नबी के मिम्बर पर आ गए हैं
नबी की हर इक अदा के क़ातिल

इमाम जिन का यज़ीद होगा
वो कैसे जानें हुसैन क्या है

बने भी हैं क़ारी ला-इलाह के
ये ला-इलाह की बक़ा के क़ातिल

ये मंसबों के ग़सब के आदी
ज़रूर होते ख़ुदा के क़ातिल