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ख़ुदा का घर नहीं कोई | शाही शायरी
KHuda ka ghar nahin koi

नज़्म

ख़ुदा का घर नहीं कोई

निदा फ़ाज़ली

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ख़ुदा का घर नहीं कोई
बहुत पहले हमारे गाँव के अक्सर बुज़ुर्गों ने

उसे देखा था
पूजा था

यहीं था वो
यहीं बच्चों की आँखों में

लहकते सब्ज़ पेड़ों में
वो रहता था

हवाओं में महकता था
नदी के साथ बहता था

हमारे पास वो आँखें कहाँ हैं
जो पहाड़ी पर

चमकती
बोलती

आवाज़ को देखें
हमारे कान बहरे हैं

हमारी रूह अंधी है
हमारे वास्ते

अब फूल खिलते हैं
न कोंपल गुनगुनाती है

न ख़ामोशी अकेले में सुनहरे गीत गाती है
हमारा अहद!

माँ के पेट से अंधा है बहरा है
हमारे आगे पीछे

मौत का तारीक पहरा है