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ख़ुद-सुपुर्दगी | शाही शायरी
KHud-supurdagi

नज़्म

ख़ुद-सुपुर्दगी

अमजद इस्लाम अमजद

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रात भीगे तो पुराने क़िस्से
पए तरतीब कोई और सहारा ढूँडें

चाँदनी नींद का फैला हुआ जादू ले कर
दिल के बे-ख़्वाब नगर में उतरे

और हवा धूप से बौलाई हुई सड़कों पर
लोरियाँ गाती निकले

ओस हर फूल के दामन में सितारे भर दे
लेकिन इस ख़्वाब-ए-ख़याली का नतीजा क्या है

रात की गोद मिरे दर्द की मंज़िल तो नहीं
दामन-ए-गुल पे चमकती शबनम

लोरियाँ देती हुई सर्द हवा
चाँदी की नर्म सुनहरी किरनें

सब के सीनों में उतर जाएँगी
कल के सूरज की झुलसती किरनें

दर्द फिर ख़ाक-ब-सर आएगा
ख़्वाब की आँख में सिमटा हुआ सारा काजल

ख़ुद उसी ख़्वाब के चेहरे पे बिखर जाएगा
दिल के क़िस्सों का मुक़द्दर है परेशाँ-हाली

पए तरतीब सहारों का तआक़ुब छोड़ो
सोच के बख़्त में इज़हार का लम्हा कब था

दिल-ए-नाकाम सराबों का तआक़ुब छोड़ो
सुब्ह-दम फिर वही पुतली का तमाशा होगा

जागती रात के ख़्वाबों का तआक़ुब छोड़ो