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ख़ुद-कुशी | शाही शायरी
KHud-kushi

नज़्म

ख़ुद-कुशी

नून मीम राशिद

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कर चुका हूँ आज अज़्म-ए-आख़िरी
शाम से पहले ही कर देता था मैं

चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तवाँ
सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबारा बुलंद,

रात को जब घर का रुख़ करता था मैं
तीरगी को देखता था सर-निगूँ

मुँह बसोरे, रहगुज़ारों से लिपटते, सोगवार
घर पहुँचता था मैं इंसानों से उकताया हुआ

मेरा अज़्म-ए-आख़िरी ये है के मैं
कूद जाऊँ सातवीं मंज़िल से आज!

आज मैं ने पा लिया है ज़िंदगी को बे-नक़ाब,
आता जाता था बड़ी मुद्दत से मैं

एक इश्वा-साज़ ओ हर्ज़ा-कार महबूबा के पास
उस के तख़्त-ए-ख़्वाब के नीचे मगर

आज मैं ने देख पाया है लहू
ताज़ा ओ रख़्शाँ लहू,

बू-ए-मय में बू-ए-ख़ूँ उलझी हुई!
वो अभी तक ख़्वाब-गह में लौट कर आई नहीं

और मैं कर भी चुका हूँ अपना अज़्म-ए-आख़िरी!
जी में आई है लगा दूँ एक बेबाकाना जस्त

उस दरीचे में से जो
झाँकता है सातवीं मंज़िल से कू-ए-बाम को!

शाम से पहले ही कर देता था मैं
चाट कर दीवार को नोक-ए-ज़बाँ से ना-तवाँ

सुब्ह होने तक वो हो जाती थी दोबारा बुलंद
आज तो आख़िर हम-आग़ोश-ए-ज़मीं हो जाएगी!