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ख़ुद-कशी | शाही शायरी
KHud-kashi

नज़्म

ख़ुद-कशी

नसीम अंसारी

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ज़मीं अब चलते चलते थक चुकी है
समुंदर ख़ुश्क होता जा रहा है

फ़लक भी कितना बूढ़ा हो चुका है
सितारे रौशनी खोने लगे हैं

ये सय्यारे जो गर्दिश कर रहे हैं
ये सय्यारे ज़मीं पर आ गए हैं

बिखर जाएगा ये शीराज़ा इक दिन
सभी ज़ी-रूह सारे जानवर इंसाँ

ये इक इक साँस माँगेंगे ज़मीं पर
बिगड़ जाएगा जिस दिन भी तवाज़ुन

हमारी काएनात-ए-रंग-ओ-बू का
ज़मीं पर हुस्न-ए-फ़ितरत को न कुचलो

ये पूरी नस्ल आदम के लिए इक ख़ुद-कुशी है