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ख़ुद फ़रेब | शाही शायरी
KHud fareb

नज़्म

ख़ुद फ़रेब

ज़िया जालंधरी

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नहीं नहीं मुझे नूर-ए-सहर क़ुबूल नहीं
कोई मुझे वो मिरी तीरगी अता कर दे

कि मैं ने जिस के सहारे बुने थे ख़्वाब पे ख़्वाब
हज़ार रंग मिरे मू-क़लम में थे जिन से

बना बना के बुत-ए-आरज़ू की तस्वीरें
सियाह पर्दा-ए-शब पर बिखेर दीं मैं ने

रवाँ थे मेरे रग-ओ-पै में अन-गिनत नग़्मे
वो दुख के गीत जो लब-आश्ना नहीं अब तक

मैं तीरा-बख़्त था इस तीरगी के दामन में
सकूँ नसीब था नाकाम आरज़ूओं को

मैं अपने ख़्वाबों से तारीक रात से ख़ुश था
न जाने क्यूँ पलट आई हो सैल-ए-नूर के साथ

मैं जी रहा था तुम्हारे बग़ैर भी लेकिन
तुम्हारी याद में मैं ने वो बुत बनाए हैं

जो आज तुम से भी बढ़ कर अज़ीज़ हैं मुझ को
वो बुत मिरे हैं मुझे छोड़ कर न जाएँगे

मैं अपने-आप से बे-हिस बुतों से ख़ुश था मगर
तुम आ गई हो मिरी तीरगी पे हँसने को

तुम्हारे साथ कई ग़म भी लौट आए हैं
नहीं नहीं मुझे अब सोज़-ए-ग़म की ताब नहीं

नहीं सहर नहीं ताबीर मेरे ख़्वाबों की
नहीं मुझे न जगाओ कि मेरे ख़्वाबों में

तुम्हारा अक्स मुझे अब भी प्यार करता है