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खंडर | शाही शायरी
khanDar

नज़्म

खंडर

मुख़्तार सिद्दीक़ी

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न ये फ़ना है न ये बक़ा है
मियान बूद-ओ-अदम ये कैसा तवील वक़्फ़ा है

जो नविश्ता हमारी क़िस्मत का बन गया है
कनार-ए-दरिया कभी ये बस्ती थी

लेकिन अब नेस्ती-ओ-हस्ती के दरमियान इक मक़ाम-ए-बर्ज़ख़ है
ऐसा बर्ज़ख़ कि जिस में सदियों से काख़-ओ-कू बाम-ओ-दर मुसलसल

शिकस्तगी ख़स्तगी ख़राबी में ख़ीरा-सर हैं
हुदूद-ए-हस्ती से हम निकल कर खंडर बने थे

मगर खंडर बन के मिट भी जाते
कि ये ग़म-ए-ज़िंदगी के रसिया

हमारी हस्ती को अपनी यादों से महव कर देते भूल जाते
न ये कि हम को तमाशा-गाह-ए-जहाँ बनाते

हमारे इबरत-कदों को महफ़ूज़ कर के रखते
न ये कि आबादियों की ख़ातिर

हमारी बर्बादियों को तारीख़ी यादगारें बनाए रखते
वो यादगारें

जहाँ पे ये लोग ज़िंदगी के इजारा-दार आ सकें तो आएँ
दिनों को राहों की ख़ाक उड़ाईं

वो बारगाहें जो अर्श-पाया थीं अदब-ओ-आदाब-ए-ख़ुसरवी में
वहाँ ये दराज़ खिसकते जाएँ

जहाँ भी जी चाहे अपना नाम और शे'र लिक्खें
मचाएँ ग़ौग़ा रक़ीक़ बे-मा'नी गीत गाएँ

मगर न औक़ात-ए-पंजगाना में
एक भी वक़्त सूनी मस्जिद में झाँक पाएँ

किसी की तुर्बत पे फ़ातिहा के लिए न ये अपने हाथ उठाएँ
दिनों को यूँही फ़सुर्दा राहों की ख़ाक उड़ाईं

दिए जले पर घरों को जाएँ
हमारी वीरानियों को वीरान-तर बना कर चले ही जाएँ

यहाँ पे छा जाए अंधी अँधियारियों का फिर वो सुकूत-ए-जामिद
कि यौम-ओ-सुपर ही जिस के हम-राज़-ओ-हम-नफ़स हैं

न दिन की वहशत में कुछ कमी थी
कि शब की दहशत में कुछ कसर हो

हमारे दिन-रात एक से हैं
हमारे दिन-रात उसी वजूद-ओ-अदम के इक वक़फ़ा-ए-मुसलसल में

हस्ती-ओ-नीस्ती के बर्ज़ख़ में पा-ब-गुल हैं
हमारे दिन-रात इसी दरा-ए-ज़मान वक़्फ़े से मुत्तसिल हैं

मगर हमें कब मिलेगी इस दाम से रिहाई
हमें मिलेगा अदम की मादूम-ओ-बे-निशाँ गोद का सुकून-ए-अबद ख़ुदाया

हमें अज़ल और अबद के चक्कर से कब अता होगी रुस्तगारी
ख़ुदा-ए-क़य्यूम-ओ-हय्ये-ओ-क़ाएम

जनाब बारी