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ख़ातून-ए-मशरिक़ | शाही शायरी
KHatun-e-mashriq

नज़्म

ख़ातून-ए-मशरिक़

जोश मलीहाबादी

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ग़ुंचा-ए-दिल मर्द का रोज़-ए-अज़ल जब खुल चुका
जिस क़दर तक़दीर में लिक्खा हुआ था मिल चुका

दफ़अतन गूँजी सदा फिर आलम-ए-अनवार में
औरतें दुनिया की हाज़िर हों मिरे दरबार में

औरतों का कारवाँ पर कारवाँ आने लगा
फिर फ़ज़ा में परचम-ए-इनआम लहराने लगा

नाज़ से हूरें तराने हम्द के गाने लगीं
औरतें भर भर के अपनी झोलियाँ जाने लगीं

जब रहा कुछ भी न बाक़ी कीसा-ए-इनआम में
काँपती हाज़िर हुईं फिर एशिया की औरतें

दिल में ख़ौफ़-ए-शुमइ-ए-क़िस्मत से घबराई हुई
रोब से नीची निगाहें आँख शर्माई हुई

हिल्म के साँचे में रूह-ए-नाज़ को ढाले हुए
गर्दनों में ख़म सरों पर चादरें डाले हुए

आख़िर इस अंदाज़ पर रहमत को प्यार आ ही गया
मय-कदे पर झूम कर अब्र-ए-बहार आ ही गया

मुस्कुरा कर ख़ालिक़-ए-अर्ज़-ओ-समा ने दी निदा
ऐ ग़ज़ाल-ए-मशरिक़ी आ तख़्त के नज़दीक आ

नेमतें सब बट चुकीं लेकिन न होना मुज़्महिल
सब को बख़्शे हैं दिमाग़ और ले तुझे देते हैं दिल

ये वही दिल है जो मज़रब होके सोज़ ओ साज़ से
मेरे पहलू में धड़कता था अजब अंदाज़ से

तुझ को वो रुख़ अपनी सीरत का दिए देते हैं हम
जिस में यज़्दानी निसाइयत की ज़ुल्फ़ों के हैं ख़म

आ कि तुझ को साहिब-ए-महर-ओ-वफ़ा करते हैं हम
ले ख़ुद अपनी जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ अता करते हैं हम

पहलू-ए-ख़ातून-ए-मशरिक़ में ब-सद तमकीन ओ नाज़
मुंतक़िल हो जा उलूहियत के सीने के गुदाज़

औरतें अक़्वाम-ए-आलम की भटक जाएँगी जब
तू रहेगी बन के उस तूफ़ाँ में इक मौज-ए-तरब

हुस्न हो जाएगा जब औरों का वक़्फ़-ए-ख़ास-ओ-आम
दीदनी होगा तिरे ख़ल्वत-कदे का एहतिमाम

आलम-ए-निस्वाँ पे काली रात जब छा जाएगी
ये तिरे माथे की बिंदी सुब्ह को शरमाएगी

औरतें बेचेंगी जब स्टेज पर बा-रक़्स-ओ-चंग
अपनी आँखों की लगावट अपने रुख़्सारों का रंग

उन के आगे हर नया मैदान होगा जल्वा-गाह
और तिरा स्टेज होगा सिर्फ़ शौहर की निगाह

गोदियाँ फैला के जब मांगेंगी बा-सिद्क़-ओ-सफ़ा
औरतें औलाद के पैदा न होने की दुआ

मुज़्दा-बाद ऐ एशिया की दुख्तर-ए-पाकीज़ा-तर
आँच आएगी न तेरे मादराना ज़ौक़ पर

माओं की ग़फ़लत से जब बच्चों को पहुँचेगा गज़ंद
जब फ़ुग़ाँ बे-तर्बियत औलाद की होगी बुलंद

सिर्फ़ इक तेरा तबस्सुम ऐ जमाल-ए-ताबनाक
सीना-ए-अतफ़ाल में पैदा करेगा रूह-ए-पाक

वो हरारत तेरे होंटों की न होगी पाएमाल
जिसके शोलों से निखर जाता है रंग-ए-नौनिहाल

वो तिरी मासूम रानाई न होगी मुज़्महिल
बख़्शती है नस्ल-ए-इंसानी के पहलू को जो दिल

वो भी दिन आएगा जब तुझ को ही ऐ मस्त-ए-हिजाब
ज़ेब देगा मादर-ए-औलाद-ए-आदम का ख़िताब

जब करेगी सिंफ़-ए-नाज़ुक अपनी उर्यानी पे नाज़
सिर्फ़ इक तू इस तलातुम में रहेगी पाक-बाज़

उनके दिल जब होंगे याद-ए-मासियत से पाश पाश
तेरे रुख़ पर एक भी होगी न माज़ी की ख़राश

उन की रातें ख़ौफ़-ए-रुस्वाई से होंगी जब दराज़
तेरे सीने में किसी शब का न होगा कोई राज़

दहशत-ए-फ़र्दा से थर्राएगा जब उन का ग़ुरूर
हाल से तू होगी राज़ी ख़ौफ़-ए-मुस्तक़बिल से दूर

जब उड़ेगी उन की चश्म-ए-दाम-ए-परवरदा में ख़ाक
नर्म डोरे तेरी आँखों के रहेंगे ताबनाक

नर्म होंगे तेरे जल्वे भी तिरी गुफ़्तार भी
बा-हया होगी तिरी पाज़ेब की झंकार भी

छाँव भी होगी न तेरी बज़्म-ए-नाव-नोश में
तेरा परतव तक रहेगा शर्म के आग़ोश में

ऐ शुआ-ए-अर्ज़-ए-मशरिक़ तेरी इफ़्फ़त का शिआर
कज करेगा मुल्क ओ मिल्लत की कुलाह-ए-इफ़्तिख़ार

आबरू होगा घराने भर की तेरा रख-रखाव
देगा तेरा बाप शान-ए-फ़ख़्र से मोंछों पे ताव

तेरी आँखों की किरन से ऐ जहान-ए-ए'तिबार
जगमगाएगी नसब-नामों की लौह-ए-ज़र-निगार

बुल-हवस का सर झुका देगी तिरी अदना झलक
होगी लहजे में तिरे नब्ज़-ए-तहारत की धमक

तेरी पेशानी पे झलकेगा मिसाल-ए-बर्क़-ए-तूर
तिफ़्ल का नाज़-ए-शराफ़त और शौहर का ग़ुरूर

इल्म से हर चंद तुझ को कम किया है बहरा-मंद
लेकिन इस से हो न ऐ मासूम औरत दर्द-मंद

जब ज़रूरत से ज़ियादा नाज़ फ़रमाता है इल्म
आरिज़-ए-ताबाँ के भोले-पन को खा जाता है इल्म

नुत्क़ हो जाता है इल्मी इस्तलाहों से उदास
लाल-ए-लब में शहद की बाक़ी नहीं रहती मिठास

इल्म उठा लेता है बज़्म-ए-जाँ से शम-ए-एतक़ाद
ख़ाल-ओ-ख़द की मौत है चेहरे की शान-ए-इज्तिहाद

क़अर-ए-वहशत की तरफ़ मुड़ती है अक्सर राह-ए-फ़न
झाँकती रहती है इस ग़ुर्फ़े से चश्म-ए-अहरमन

छोड़ देती तकल्लुम को मुलाएम क़ील-ओ-क़ाल
इल्म का हद से गुज़र जाना है तौहीन-ए-जमाल

इल्म से बढ़ती है अक़्ल और अक़्ल है वो बद-दिमाग़
जो बुझा देती है सीने में मोहब्बत का चराग़

इल्म से बाक़ी नहीं रहते मोहब्बत के सिफ़ात
और मोहब्बत है फ़क़त ले दे के तेरी काएनात

देख तुझ पर इल्म की भरपूर पड़ जाए न ज़र्ब
भाग इस पर्दे में हैं शैतान के आलात-ए-हर्ब

इल्म से रहती है पाबंद-ए-शिकन जिस की जबीं
नाज़ से शानों पर उस की ज़ुल्फ़ लहराती नहीं

वक़्त से पहले बुला लेते हैं पीरी को उलूम
उम्र से आगे निकल जाते हैं चेहरे बिल-उमूम

जिन लबों को चाट पड़ जाती है क़ील-ओ-क़ाल की
उन की गर्मी को तरसती है जबीं अतफ़ाल की

इक जुनूँ-पर्वर बगूला है वो इल्म-ए-बे-वसूक़
जिस की रौ में काँपने लगते हैं शौहर के हुक़ूक़

दूर ही से ऐसे इल्म-ए-जहल-पर्वर को सलाम
हुस्न-ए-निस्वाँ को बना देता हो जो जागीर-ए-आम

जिस जगह हूरान-ए-जन्नत का किया है तज़्किरा
क्या कहा है और भी कुछ हम ने जुज़ हुस्न ओ हया

तज़्किरा हूरों का है महज़ एक तस्वीर-ए-जमाल
हम ने क्या उनको कहा है ''साहिब-ए-फ़ज़्ल-ओ-कमाल''

हेच है हर चीज़ ज़ेवर ग़ाज़ा अफ़्शाँ रंग ओ ख़ाल
हुस्न ख़ुद अपनी जगह है सौ कमालों का कमाल

चाँदनी, क़ौस-ए-क़ुज़ह, औरत, शगूफ़ा, लाला-ज़ार
इल्म का इन नर्म शानों पर कोई रखता है बार?

रौशनाई में कहीं घुलती है मौज-ए-माहताब
क्या कोई औराक़-ए-गुल पर तब्अ करता है किताब

मेरे आलम में नहीं इस बद-मज़ाक़ी का शिआर
काकुल-ए-अफ़्साना हो दोश-ए-हक़ीक़त से दो-चार

हुस्न का आग़ोश-ए-रंगीं दिल-फ़रेब-ओ-दिलरुबा
इल्म से बन जाए अक़्लीदस का महज़ इक दायरा!

मुसहफ़-ए-रू-ए-किताबी रू-कश-ए-नाज़-ए-गुलाब
और बन जाए ये नेमत दफ़्तर-ए-इल्म-ए-हिसाब

नग़्मा-ए-शीरीं के दामन में हो शोर-ए-काएनात
बज़्म-ए-काविश में जले शम-ए-शबिस्तान-ए-हयात

गर्म हो तेज़ाब की खौलन से लाले का अयाग़
ग़ुंचा-ए-नौरस का ताक़ और पीर-ए-मकतब का चराग़

शहपर-ए-बुलबुल पे खींची जाए तस्वीर-ए-शिग़ाल!
मोतियों पर सब्त हो तूफ़ान की मोहर-ए-जलाल

सुब्ह ग़र्क़-ए-बहस हो ग़ुंचे खिलाने के एवज़
दर्स दें मौजें सबा की गुनगुनाने की एवज़

तू न करना मग़रिबी मतवालियों की रेस देख
घात में तेरी लगा है फ़ित्ना-ए-इब्लीस देख

तू न उन की तरह भरना अर्सा-ए-फ़न में छलांग
कोख ता ठंडी रहे बच्चों से और संदल से माँग

दुख़तरन-ए-मग़रिबी को दे न औरत का ख़िताब
ये मुजस्सम हो गए हैं कुछ गुनहगारों के ख़्वाब

फिर रही हैं या तिरी नज़रों के आगे पुर-फ़ज़ा
औरतों के भेस में शैतान की सरताबियाँ

इल्म हासिल कर फ़क़त तदबीर-ए-मंज़िल के लिए
वो दिमाग़ों के लिए हैं और तू दिल के लिए!