जान-मोहम्मद-ख़ान
सफ़र आसान नहीं
धान के इस ख़ाली बोरे में
जान उलझती है
पट-सन की मज़बूत सलाख़ें दिल में गड़ी हैं
और आँखों के ज़र्द कटोरों में
चाँद के सिक्के छन-छन गिरते हैं
और बदन में रात फैलती जाती है...
आज तुम्हारी नंगी पीठ पर
आग जलाए कौन
अंगारे दहकाए कौन
जिद्द-ओ-जोहद के
ख़ूनीं फूल खिलाए कौन
मेरे शोला-गर पंजों में जान नहीं
आज सफ़र आसान नहीं
थोड़ी देर में ये पगडंडी
टूट के इक गंदे तालाब में गिर जाएगी
मैं अपने ताबूत की तन्हाई से लिपट कर
सो जाऊँगा
पानी पानी हो जाऊँगा
और तुम्हें आगे जाना...
इक... गहरी नींद में चलते जाना है
और तुम्हें इस नज़र न आने वाले बोरे...
...अपने ख़ाली बोरे की पहचान नहीं
जान-मोहम्मद-ख़ान
सफ़र आसान नहीं

नज़्म
ख़ाली बोरे में ज़ख़्मी बिल्ला
साक़ी फ़ारुक़ी