EN اردو
ख़ाक-ए-दिल | शाही शायरी
KHak-e-dil

नज़्म

ख़ाक-ए-दिल

जाँ निसार अख़्तर

;

लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
तेरे गहवारा-ए-आग़ोश में ऐ जान-ए-बहार

अपनी दुनिया-ए-हसीं दफ़्न किए जाता हूँ
तू ने जिस दिल को धड़कने की अदा बख़्शी नहीं

आज वो दिल भी यहीं दफ़्न किए जाता हूँ
दफ़्न है देख मेरा अहद-ए-बहाराँ तुझ में

दफ़्न है देख मिरी रूह-ए-गुलिस्ताँ तुझ में
मेरी गुल-पोश जवाँ-साल उमंगों का सुहाग

मेरी शादाब तमन्ना के महकते हुए ख़्वाब
मेरी बेदार जवानी के फ़िरोज़ाँ मह ओ साल

मेरी शामों की मलाहत मिरी सुब्हों का जमाल
मेरी महफ़िल का फ़साना मिरी ख़ल्वत का फ़ुसूँ

मेरी दीवानगी-ए-शौक़ मिरा नाज़-ए-जुनून
मेरे मरने का सलीक़ा मिरे जीने का शुऊर

मेरा नामूस-ए-वफ़ा मेरी मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम मिरे नग़्मों की पुकार

मेरे शेरों की सजावट मिरे गीतों का सिंगार
लखनऊ अपना जहाँ सौंप चला हूँ तुझ को

अपना हर ख़्वाब-ए-जवाँ सौंप चला हूँ तुझ को
अपना सरमाया-ए-जाँ सौंप चला हूँ तुझ को

लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा

दफ़्न हैं इस में मोहब्बत के ख़ज़ाने कितने
एक उनवान में मुज़्मर हैं फ़साने कितने

इक बहन अपनी रिफ़ाक़त की क़सम खाए हुए
एक माँ मर के भी सीने में लिए माँ का गुदाज़

अपने बच्चों के लड़कपन को कलेजे से लगाए
अपने खिलते हुए मासूम शगूफ़ों के लिए

बंद आँखों में बहारों के जवाँ ख़्वाब बसाए
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा

एक साथी भी तह-ए-ख़ाक यहाँ सोती है
अरसा-ए-दहर की बे-रहम कशाकश का शिकार

जान दे कर भी ज़माने से न माने हुए हार
अपने तेवर में वही अज़्म-ए-जवाँ-साल लिए

ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
देख इक शम-ए-सर-ए-राह-गुज़र चलती है

जगमगाता है अगर कोई निशान-ए-मंज़िल
ज़िंदगी और भी कुछ तेज़ क़दम चलती है

लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़्वाब-गह-ए-नाज़ पे कल मौज-ए-सबा

ले के नौ-रोज़-ए-बहाराँ की ख़बर आएगी
सुर्ख़ फूलों का बड़े नाज़ से गूँधे हुए हार

कल इसी ख़ाक पे गुल-रंग सहर आएगी
कल इसी ख़ाक के ज़र्रों में समा जाएगा रंग

कल मेरे प्यार की तस्वीर उभर आएगी
ऐ मिरी रूह-ए-चमन ख़ाक-ए-लहद से तेरी

आज भी मुझ को तिरे प्यार की बू आती है
ज़ख़्म सीने के महकते हैं तिरी ख़ुश्बू से

वो महक है कि मिरी साँस घुटी जाती है
मुझ से क्या बात बनाएगी ज़माने की जफ़ा

मौत ख़ुद आँख मिलाते हुए शरमाती है
मैं और इन आँखों से देखूँ तुझे पैवंद-ए-ज़मीं

इस क़दर ज़ुल्म नहीं हाए नहीं हाए नहीं
कोई ऐ काश बुझा दे मिरी आँखों के दिए

छीन ले मुझ से कोई काश निगाहें मेरी
ऐ मिरी शम-ए-वफ़ा ऐ मिरी मंज़िल के चराग़

आज तारीक हुई जाती हैं राहें मेरी
तुझ को रोऊँ भी तो क्या रोऊँ कि इन आँखों में

अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िंदगी अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल ही सही

एक लम्हे को क़दम थम से गए हैं मेरे
फिर भी इस अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल से मुझे

कोई आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता है
आज सोता ही तुझे छोड़ के जाना होगा

नाज़ ये भी ग़म-ए-दौराँ का उठाना होगा
ज़िंदगी देख मुझे हुक्म-ए-सफ़र देती है

इक दिल-ए-शोला-ब-जाँ साथ लिए जाता हूँ
हर क़दम तू ने कभी अज़्म-ए-जवाँ बख़्शा था!

मैं वही अज़्म-ए-जवाँ साथ लिए जाता हूँ
चूम कर आज तिरी ख़ाक-ए-लहद के ज़र्रे

अन-गिनत फूल मोहब्बत के चढ़ाता जाऊँ
जाने इस सम्त कभी मेरा गुज़र हो कि न हो

आख़िरी बार गले तुझ को लगाता जाऊँ
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन

देख इस ख़ाक को आँखों में बसा कर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगा कर रखना