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ख़ाक-ए-बिसात | शाही शायरी
KHak-e-bisat

नज़्म

ख़ाक-ए-बिसात

अहमद हमेश

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जीवन तो इसी शश-ओ-पंज में गुज़र जाता है
दुनिया रहने की जगह है भी या नहीं

वो लोग जिन से हम बिल्कुल मिलना नहीं चाहते वही हम से क्यूँ मुसलसल मिल रहे होते हैं
जिन्हें हम बिल्कुल देखना नहीं चाहते वही क्यूँ मुसलसल दिखाई दे रहे होते हैं

चाहिए तो ये था कि हम अपने फ़ुज़ूल दिल को किसी ख़ैरात-ख़ाने में रख छोड़ते
तो ख़ैरात देने वाले ख़ैरात के साथ हिक़ारत भी बाँट रहे होते

अगर ज़मीन भर के पेड़ एक उग कर दोबारा न उगते
तो साथ चलने या साथ रहने का अहद कोई भी नहीं करता

नाबूद बूद को और बूद नाबूद को ख़ैर-बाद कह चुका हूँ
तब कोई किसी न पूछता कि कौन क्या है क्यूँ है कैसे है

नमाज़ तो फ़क़त निय्यत है मगर सिरे से निय्यत ही नहीं की गई
काश कुफ़्र ही सच्चा होता

ऐसा हुआ ही नहीं कि आज तक पानी ने पानी को आ लिया
और आग को आग लग गई

मोहब्बत को अगर मोहब्बत लाहक़ हो जाती तो कोई नाहक़ जी नहीं रहा होता
आख़िर ऐसी मौसीक़ी कहाँ है जो आवाज़ और समाअ'त से मावरा हो