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कतबा | शाही शायरी
katba

नज़्म

कतबा

मोहम्मद अल्वी

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क़ब्र में उतरते ही
मैं आराम से दराज़ हो गया

और सोचा
यहाँ मुझे

कोई ख़लल नहीं पहुँचाएगा
ये दो-गज़ ज़मीन

मेरी
और सिर्फ़ मेरी मिलकियत है

और मैं मज़े से
मिट्टी में घुलता मिलता रहा

वक़्त का एहसास
यहाँ आ कर ख़त्म हो गया

मैं मुतमइन था
लेकिन बहुत जल्द

ये इत्मिनान भी मुझ से छीन लिया गया
हुआ यूँ

कि अभी मैं
पूरी तरह मिट्टी भी न हुआ था

कि एक और शख़्स
मेरी क़ब्र में घुस आया

और अब
मेरी क़ब्र पर

किसी और का
कतबा नस्ब है!!