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कतबा | शाही शायरी
katba

नज़्म

कतबा

एजाज़ फ़ारूक़ी

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कल जो क़ब्रिस्तान से लौटा
तो तन्हाई का इक बोझ उठा कर लाया

ऐसे लगता था कि मैं बुझता दिया हूँ
और सब लोग तमाशाई हैं

मुंतज़िर हैं कि मेरे बुझने का मंज़र देखें
ऐसे लगता था कि हर गाम पर खुलते दहाने हैं

मेरे जिस्म को आग़ोश में लेने के लिए
ज़िंदगी दूर खड़ी हँसती रही

क़हक़हों का इक समुंदर
मेरी जानिब मौज-दर-मौज बढ़ा

शब का सन्नाटा
फ़लक-बोस इमारात के डरबों में वो हिलते हुए साए

जैसे मरघट का समाँ हो
रास्ते नाग की मानिंद दहाने खोले

कहीं फ़ुट-पाथ पे लेटे हुए बे-जान से जिस्म
जिन पे खम्बे यूँ खड़े थे

जैसे ये कत्बे गड़े हों
फिर अचानक वो बर्कों की क्रीच

सुर्ख़-ख़ूँ का एक फव्वारा
वो इक कुत्ते की लाश

ज़िंदगी एक तिलिस्मात-कदा
जिस की दीवारों की ज़ीनत के लिए

लम्हों की रंगी तितलियाँ पत्थर हुईं