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कर्ब आगही | शाही शायरी
karb aagahi

नज़्म

कर्ब आगही

इंजिला हमेश

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फिर वही अंदाज़ वही आवाज़
जैसे अभी कोई कहेगा

तुम मेरी रौशनी हो
वही आवाज़

जिस ने मोहब्बत से नफ़रत करना सिखाया
जिस ने बावर कराया कि जिस्म की तो कोई हक़ीक़त ही नहीं

आदमी से आदमी का रिश्ता कभी भी बे-मआ'नी हो सकता है
तब किसी बीते हुए बिखरे लम्हे में दी गई आवाज़ डूब जाती है

मगर अब की बार आवाज़ से आवाज़ तक के सफ़र ने जो नाम पुकारा
तो मालूम हुआ

कि मन में कहीं टूटी हुई चूड़ी का टुकड़ा रह गया था
जो अब इस आवाज़ की लय पे बार बार चुभता है