तिरे दर से गुज़रा था बारहा
वो खुला नहीं
वहाँ दर पे पहरा लगा था गर्दिश-ए-हाल का
मैं तिरे तिलिस्म में बंद था
मुझे था किसी से न अपने आप से वास्ता
फ़क़त एक नौहा बे-अमाँ था सुकूत में
वो सुकूत जिस में भँवर सदाओं के बे-शुमार
वही गूँजते थे वजूद में
कोई चश्म-ए-शौक़ को वाक़िए
सर-ए-राह अब भी मिला नहीं
तो गिला नहीं
कि मैं अपनी ज़ात की अंजुमन में हर इक से महव-ए-कलाम हूँ
मिरे हाल की न उसे ख़बर न उसे ख़बर
कि ये लोग
सादा ग़रीब मुख़लिस-ओ-चारा-साज़
यही लोग हिर्स में मुब्तला जो निकालें काम फ़रेब से
न हो उन सा कोई ज़माना-साज़
कभी उन में ज़हर अना का है कभी वहम का कभी जहल का
कभी साँप अंधी अक़ीदतों के लिपट गए
हमा-वक़्त रहती है सीम-ओ-ज़र की तलब उन्हें
कि ये ख्वाज-गान-ए-वरम से रखते हैं साज़-बाज़
जिन्हें बंदगान-ए-वरम कहें तो बजा कहें
कि वो ख़्वाजा क्या हैं वरम की करते हैं बंदगी
उन्हें मुझ से मिलने का शौक़ क्या
ये वो लोग हैं जो न अपने-आप से मिल सके
ये उन्हीं के बारे में था जो खुला सहीफ़ा-ए-हस्त-ओ-बूद
ये बदलते चेहरों के लोग
जिन का न अपना चेहरा न ख़ाल-ओ-ख़त
उसी कारवाँ में शरीक हैं जो उम्मीद-ए-वहम की राह में
कई सद-हज़ार बरस से है
कई बार उभरे हैं गर्द से
कई बार धुआँ में अट गए
वो जो ख़्वाब थे
कई सद-हज़ार बरस के ख़्वाब
जो यक़ीं न थे जो गुमाँ न थे
वो जो उन के अपने निगाह-ओ-दिल पे अयाँ न थे
कि अयाँ हुए तो बिखर गए
मगर उन का अपना वजूद थे लहू बन के उन की रगों में पैहम रवाँ भी थे
तेरा दर तो अब भी खुला नहीं
मगर इक उम्मीद का दर खुला
कई सद-हज़ार बरस का अर्सा-ए-इंतिज़ार गुज़र गया
वो जो ख़्वाब थे वो जो ख़्वाब हैं
वही ख़्वाब दिल में उतर पड़े
नया रंग है शब-ओ-रोज़ का
नई ताबिश-ए-मह-ओ-साल है
होते सब के ख़्वाब जो मेरे ख़्वाब
अजब उस में लुत्फ़-ए-विसाल है
नज़्म
कई सद-हज़ार बरस के ख़्वाब
अंजुम आज़मी