कुछ नहीं, घर में मिरे कुछ भी नहीं
कोई कपड़ा कि हरारत को बदन में रखता
लुक़्मा-ए-नान-ए-जवीं, ख़ून को धक्का देता
मन को गर्माता सकूँ, तन से लिपटता बिस्तर
कुछ नहीं, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!
रात को जिस्म से चिपकाती हुई सर्द हवा
जिस्म के बंद मसामों में उतरती ठंडक
संग-ए-मरमर सी हुईं ख़ून तरसती पोरें
हाथ लर्ज़ां थे उमीदों ने मगर थाम लिए
पाँव चलते ही रहे शहर-ए-ख़मोशाँ की तरफ़
पर्दा-ए-ख़ाक में लिपटे हुए बे-जान वजूद!
बाइस-ए-नंग-ए-ज़मीं हूँ, मगर इक बात बता
जिस्म मिट्टी हो तो कपड़ों की ज़रूरत क्या है?
देख! पैवंद-ए-ज़मीं! मेरे तन-ए-उर्यां पर
दाग़-ए-अफ़्लास का पैवंद... इजाज़त दे दे
मर के मरते हुए इंसान को ज़िंदा कर दे
एक मल्बूस कमाने की इजाज़त दे दे!
वर्ना भूकी है बहुत ख़ाक, कहाँ देखेगी
जिस्म खा जाएगी पोशाक कहाँ देखेगी!
नज़्म
कफ़न-चोर
शहज़ाद नय्यर