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कब से महव-ए-सफ़र हो | शाही शायरी
kab se mahw-e-safar ho

नज़्म

कब से महव-ए-सफ़र हो

साजिदा ज़ैदी

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साजिदा! किन युगों की मसाफ़त समेटे हुए
इस बयाबाँ में यूँही भटकती रहोगी

इन बगूलों के हमराह यूँ रक़्स करती रहोगी
कितने सहराओं में तुम ने फोड़े हैं पाँव के छाले

कितनी बेदार रातों से माँगा है तुम ने ख़िराज-ए-तमन्ना
साजिदा! कुछ कहो

हिज्र के किन ज़मानों में अश्कों की माला पिरोई
किन हिसाबों चुकाया क़र्ज़-ए-जुनूँ

कौन से मरहलों से गुज़र कर बना रूह का पैरहन
किस तरह जाँ से गुज़रे हैं तूफ़ान-ए-ग़म

किस तरह तुंद आँधी की यलग़ार में
तुम ने अपनी रिदा को सँभाला

कैसे यख़-बस्ता तन्हाइयों में
जश्न-ए-रूह ओ दिल ओ जाँ मनाया

शोला-ए-आरज़ू में
कैसे हर्फ़ ओ नवा को तपाया

जागती रात की तीरगी को
किस तरह मताला-ए-नूर-ए-यज़दाँ बनाया

कितने सज्दों से अपनी जबीं को सजाया
साजिदा!

दर्द के रास्तों पर
कब से महव-ए-सफ़र हो

तुम ने इन रेगज़ारों की बंजर ज़मीं में
कितने रफ़्तार ओ गुफ़्तार के गुल खिलाए

इस उक़ूबत-कदा की सियाही में
कितने चराग़-ए-तमन्ना जलाए

साजिदा!
इस तग-ओ-दौ से तुम ने

क्या कभी चेहरा-ए-ज़िंदगी को सँवारा
क्या किसी दिल में कोई सितारा उतारा

क्या ज़माने की रफ़्तार बदली
क्या किसी तपते सहरा के ज़र्रों को कुंदन बनाया

कितने ज़ख़्मों पे इंसाँ के मरहम लगाया
ज़ुल्म की दास्ताँ को कभी हर्फ़-ए-शीरीं बनाया

साजिदा!
शाम है ज़िंदगी की

थक के सो जाओ सब हाव-हू भूल जाओ
कड़ी धूप के कोस दर कोस

अगले ज़मानों के नक़्श-ए-क़दम हैं
रंग मौसम बदलने लगा है

तुम मसीहा नहीं
थक के सो जाओ

रक़्स-ए-जुनूँ भूल जाओ