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काया का कर्ब | शाही शायरी
kaya ka karb

नज़्म

काया का कर्ब

आफ़ताब इक़बाल शमीम

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उस ने देखा
वो अकेला अपनी आँखों की अदालत में

खड़ा था
बे-कशिश औक़ात में बाँटी हुई सदियाँ

किसी जल्लाद के क़दमों की आवाज़ें मुसलसल
सुन रही थीं

आने वाले मौसमों के नौहागर मुद्दत से
अपनी बेबसी का ज़हर पी कर

मर चुके थे
उस ने चाहा

बंद कमरे की सलाख़ें तोड़ कर बाहर निकल जाए
मगर शाख़ों से मुरझाए हुए पत्तों की सूरत

हाथ उस के बाज़ुओं से
गिर चुके थे