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काश | शाही शायरी
kash

नज़्म

काश

दर्शिका वसानी

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उस ख़ामोश क़िलए' की
सख़्त लोहे सी दीवारें

हर तरफ़ सफ़ेद ग़मगीन पर्दे
वो अपनी आली-शान कुर्सी पर बैठी

कोई हिसाब जोड़ रही है
उस का फीका सपाट बोझल चेहरा

जैसे भीतर का एक रूप
उस के ऊपरी रूप रंग को खा चुका हो

अचानक दरवाज़े की दस्तक
दबी हुई सिसकियों का शोर

ऊँचे दरवाज़े को खोलते ही
उस की भाव-विहीन आँखों में

संवेदनाओं की हलचल हो उठती है
सुब्ह की ओस नर्म धूप में

नाज़ुक कोपल सा एक बच्चा
अपनी चीख़ को गले में ठूस कर

उस की तरफ़ क़िलए' की तरफ़
दौड़ा आ रहा था

अभी गले लगा कर रो पड़ेगा जैसे
वो एक टुक उसे देखती रहती है

मगर गले नहीं लगा पाती वो
उस का हृदय कहता है कि भेज दे उसे

वापस उस के घर जहाँ
उस का इंतिज़ार हो रहा होगा

इस तीव्र इच्छा के साथ
बरसों से निर्लेप रही उस की आँखों में

दबी हुई भावनाए गतिमान हो कर बहने लगती है
हे ईश्वर वो आँखें मूँद लेती है

मेज़ पर रखी हिसाबों वाली किताब दिखाई देती है
और नवपल्लवित पौदे की

नाज़ुक डाली जैसी उँगलियाँ थाम कर
वो उसे क़िलए' के भीतर ले आती है

तोतींग दरवाज़ा कर्कश आवाज़ के साथ
बंद हो जाता है

वो बिलखते हुए बच्चे को आग़ोश में ले लेती है
ख़ामोश कमरे में उस मा'सूम की

धड़कने साँसें सिसकियों का शोर
तेज़ हो उठता है

वो कस के उस बच्चे को
अपने भीतर समेट कर गहरी नींद सुला देती है

जब कोई शोर बाक़ी नहीं रहता तब
उस के भीतर का रुदन बाहर आने को तड़पता है

मगर उस के अध-मरे मन मस्तिष्क
उसे याद दिलाते है कि

मौत मातम नहीं मना सकती
काश मुझे भी हक़ होता

दरवाज़े पे आए को वापस भेजने का
काश

भारी क़दमों पे उठ कर वो
उस किताब में कुछ जोड़ देती है

दिन का उजाला सूर्य का तेज
लज्जित हो कर सर झुका लेते है

हवा भी क्षोभित हो कर नीली पड़ जाती है
सारी सृष्टि अंधकार की गर्त में डूबने लगती है