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काग़ज़ की नाव | शाही शायरी
kaghaz ki naw

नज़्म

काग़ज़ की नाव

बलराज कोमल

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रात को सोने से पहले
मुझ से नन्हा कह रहा था चाँद लाखों मील क्यूँकर दूर है

क्यूँ चमकते हैं सितारे दो ग़ुबारे काली बिल्ली क्या हुई
मेरे हाथी को पिलाओ गर्म पानी वो कहानी मुझ को नींद आने लगी

निस्फ़ शब को आते-जाते बादलों के दरमियाँ
कुछ हुरूफ़-ए-ना-तवाँ

बूंदियों के रूप में काग़ज़ के इक पुर्ज़े पे मेरे सामने
देर तक गिरते रहे

नज़्म के नक़्श-ए-गुरेज़ाँ ने सितम लाखों सहे
अन-गिनत बरसों पे फैली चश्म-ओ-दिल की दास्ताँ

रात के पिछले-पहर की गोद में
तेज़-तर होती हुई बारिश के लोरी सुन के शायद सो गई

सुब्ह-दम
खिल उठे चारों तरफ़ बच्चों के रंगीं क़हक़हों और तालियों के शोख़ फूल

रात-भर की तेज़ बारिश की बनाई झील में
डगमगाती डोलती

चल रही थीं छोटी छोटी कश्तियाँ
मैं ने देखा इन में नन्हे की भी थी प्यारी सी नाव

नज़्म का नक़्श-ए-गुरेज़ाँ जाना-पहचाना सा काग़ज़ जाने-पहचाने हुरूफ़
नन्हा बोला आज जो ताली न पीटे बेवक़ूफ़