एक मुद्दत हुई सोचते सोचते
तुम से कहना है कुछ पर मैं कैसे कहूँ
आरज़ू है मुझे ऐसे अल्फ़ाज़ की
जो किसी ने किसी से कहे ही न हों
सोचता हूँ कि मौज-ए-सबा के सुबुक पाँव में कोई पाज़ेब ही डाल दूँ
चाहता हूँ कि इन तितलियों के परों में धनक बाँध दूँ
सुरमई शाम के गेसुओं में बंधी बारिशें खोल दूँ ख़ुशबुएँ घोल दूँ
फूल के सुर्ख़ होंटों पे अफ़्शाँ रखूँ
ख़्वाब की माँग में नूर सिंदूर की कहकशाँ खींच दूँ
इक तख़य्युल की बे-रब्तियों को तसलसुल की ज़ंजीर दूँ
ख़्वाब को जिस्म दूँ जिस्म को इस्म दूँ
कोई ता'बीर दूँ एक तस्वीर दूँ और तस्वीर को रू-ब-रू रख के इक हर्फ़-ए-तौक़ीर दूँ
क्या कहूँ ये कहूँ यूँ कहूँ पर मैं कैसे कहूँ
जितने अल्फ़ाज़ हैं सब कहे जा चुके सब सुने जा चुके
तिश्ना इज़हार को मो'तबर सा कोई अब सहारा मिले
इक किनाया मिले इक इशारा मिले
ख़ूबसूरत अनोखी अलामत मिले अन-कहा अन-सुना इस्तिआरा मिले
आरज़ू है मुझे ऐसे अल्फ़ाज़ की जुस्तुजू है मुझे ऐसे अल्फ़ाज़ की
जिन से पत्थर को पानी किया जा सके
ख़्वाब को इक हक़ीक़त किया जा सके
एक ज़िंदा कहानी किया जा सके
सरहद-ए-जावेदानी किया जा सके
नज़्म
जितने अल्फ़ाज़ हैं सब कहे जा चुके
तारिक़ क़मर